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यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ | शाही शायरी
yunhi mar mar ke jien waqt guzare jaen

ग़ज़ल

यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ

अहमद फ़राज़

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यूँही मर मर के जिएँ वक़्त गुज़ारे जाएँ
ज़िंदगी हम तिरे हाथों से न मारे जाएँ

अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह
आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ

वो जो मौजूद नहीं उस की मदद चाहते हैं
वो जो सुनता ही नहीं उस को पुकारे जाएँ

बाप लर्ज़ां है कि पहुँची नहीं बारात अब तक
और हम-जोलियाँ दुल्हन को सँवारे जाएँ

हम कि नादान जुआरी हैं सभी जानते हैं
दिल की बाज़ी हो तो जी जान से हारे जाएँ

तज दिया तुम ने दर-ए-यार भी उकता के 'फ़राज़'
अब कहाँ ढूँढने ग़म-ख़्वार तुम्हारे जाएँ