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ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं | शाही शायरी
ye zarre jinko hum KHak-e-rah-e-manzil samajhte hain

ग़ज़ल

ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं

जिगर मुरादाबादी

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ये ज़र्रे जिन को हम ख़ाक-ए-रह-ए-मंज़़िल समझते हैं
ज़बान-ए-हाल रखते हैं ज़बान-ए-दिल समझते हैं

जिसे सब लोग हुस्न ओ इश्क़ की मंज़िल समझते हैं
बुलंद उस से भी हम अपना मक़ाम-ए-दिल समझते हैं

हक़ीक़त में जो राज़-ए-दूरी-ए-मंजिल समझते हैं
उन्हीं को हम सुलूक-ए-इश्क़ में कामिल समझते हैं

हमें क्यूँ वो जफ़ा-ए-ख़ास के क़ाबिल समझते हैं
ये राज़-ए-दिल है इस को महरमान-ए-दिल समझते हैं

इसी इक जुर्म पर अग़्यार में बरपा क़यामत है
कि हम बेदार हैं और अपना मुस्तक़बिल समझते हैं

निगाहों में कुछ ऐसे बस गए हैं हुस्न के जल्वे
कोई महफ़िल हो लेकिन हम तिरी महफ़िल समझते हैं

कोई माने न माने इस को लेकिन ये हक़ीक़त है
हम अपनी ज़िंदगी में ग़ैब को शामिल समझते हैं

ये नर्म ओ ना-तवाँ मौजें ख़ुदी का राज़ क्या जानें
क़दम लेते हैं तूफ़ाँ अज़्मत-ए-साहिल समझते हैं

हुकूमत के मज़ालिम जब से इन आँखों ने देखे हैं
'जिगर' हम बम्बई को कूचा-ए-क़ातिल समझते हैं