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ये वाइज़ कैसी बहकी बहकी बातें हम से करते हैं | शाही शायरी
ye waiz kaisi bahki bahki baaten humse karte hain

ग़ज़ल

ये वाइज़ कैसी बहकी बहकी बातें हम से करते हैं

लाला माधव राम जौहर

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ये वाइज़ कैसी बहकी बहकी बातें हम से करते हैं
कहीं चढ़ कर शराब-ए-इश्क़ के नश्शे उतरते हैं

ख़ुदा समझे ये क्या सय्याद ओ गुलचीं ज़ुल्म करते हैं
गुलों को तोड़ते हैं बुलबुलों के पर कतरते हैं

दया दम नज़अ में गो आप ने पर रूह चल निकली
किसी के रोकने से जाने वाले कब ठहरते हैं

ज़रा रहने दो अपने दर पे हम ख़ाना-ब-दोशों को
मुसाफ़िर जिस जगह आराम पाते हैं ठहरते हैं

न आ जाया करो अग़्यार की उल्फ़त जताने में
वो तुम पर क्यूँ भला मरने लगे फ़ाक़ों से मरते हैं

हर इक मौसम में किश्त-ए-आरज़ू सरसब्ज़ रहती है
तरद्दुद ग़ैर को होगा यहाँ तो चैन करते हैं

ये जोड़ा खोलना भी हेच से ख़ाली नहीं उन का
उलझ जाता है दिल जब बाल शानों पर बिखरते हैं

समझ लेना तुम्हारा ऐ रक़ीबो कुछ नहीं मुश्किल
ख़ुदा जाने ये किस का ख़ौफ़ है हम किस से डरते हैं

तकल्लुफ़ के ये मअनी हैं समझ लो बे-कहे दिल की
मज़ा क्या जब हमीं ने ये कहा तुम से कि मरते हैं