EN اردو
ये तीरगी-ए-शब ही कुछ सुब्ह-तराज़ आती | शाही शायरी
ye tirgi-e-shab hi kuchh subh-taraaz aati

ग़ज़ल

ये तीरगी-ए-शब ही कुछ सुब्ह-तराज़ आती

असरार-उल-हक़ मजाज़

;

ये तीरगी-ए-शब ही कुछ सुब्ह-तराज़ आती
ख़ुद वादा-ए-फ़र्दा की छाती भी धड़क जाती

होंटों पे हँसी पैहम आते हुए शरमाती
अब रात नहीं कटती अब नींद नहीं आती

जो अव्वल ओ आख़िर था वो अव्वल ओ आख़िर है
मैं नाला-ब-जाँ उठता वो नग़्मा-ब-साज़ आती

सोज़-ए-शब-ए-हिज्राँ फिर सोज़-ए-शब-ए-हिज्राँ है
शबनम ब-मिज़ा उठती या ज़ुल्फ़-ए-दराज़ आती

या-रब वो जवानी भी क्या महशर-ए-अरमाँ थी
अंगड़ाई भी जब लेती एक आँख झपक जाती

आग़ाज़-ए-सियह-मस्ती अंजाम-ए-सियह-मस्ती
आईने में सूरत भी आने की क़सम खाती

सीने में 'मजाज़' अब तक वो जज़्बा-ए-काफ़िर था
तसलीस की जोइंदा वहदत की क़सम खाती