EN اردو
ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं | शाही शायरी
ye mez ye kitab ye diwar aur main

ग़ज़ल

ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं

ज़ुल्फ़िक़ार आदिल

;

ये मेज़ ये किताब ये दीवार और मैं
खिड़की में ज़र्द फूलों का अम्बार और मैं

हर शाम इस ख़याल से होता है जी उदास
पंछी तो जा रहे हैं उफ़ुक़ पार और मैं

इक उम्र अपनी अपनी जगह पर खड़े रहे
इक दूसरे के ख़ौफ़ से दीवार और मैं

सरकार हर दरख़्त से बनते नहीं हैं तख़्त
क़ुर्बान आप पर मिरे औज़ार और मैं

ले कर तो आ गया हूँ मिरे पास जो भी था
अब सोचता हूँ तेरा ख़रीदार और मैं

ख़ुशबू है इक फ़ज़ाओं में फैली हुई जिसे
पहचानते हैं सिर्फ़ सग-ए-यार और मैं

खोए हुओं को ढूँडने निकला था आफ़्ताब
दुनिया तो मिल गई सर-ए-बाज़ार और मैं