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ये जो चेहरों पे लिए गर्द-ए-अलम आते हैं | शाही शायरी
ye jo chehron pe liye gard-e-alam aate hain

ग़ज़ल

ये जो चेहरों पे लिए गर्द-ए-अलम आते हैं

बेदिल हैदरी

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ये जो चेहरों पे लिए गर्द-ए-अलम आते हैं
ये तुम्हारे ही पशेमान-ए-करम आते हैं

इतना खुल कर भी न रो जिस्म की बस्ती को बचा
बारिशें कम हूँ तो सैलाब भी कम आते हैं

तू सुना तेरी मसाफ़त की कहानी क्या है
मेरे रस्ते में तो हर गाम पे ख़म आते हैं

ख़ोल चेहरों पे चढ़ाने नहीं आते हम को
गाँव के लोग हैं हम शहर में कम आते हैं

वो तो 'बेदिल' कोई सूखा हुआ पत्ता होगा
तेरे आँगन में कहाँ उन के क़दम आते हैं