EN اردو
ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया | शाही शायरी
ye hadsa bhi shahr-e-nigaran mein ho gaya

ग़ज़ल

ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया

हफ़ीज़ बनारसी

;

ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया
बे-चेहरगी की भीड़ में हर चेहरा खो गया

जिस को सज़ा मिली थी कि जागे तमाम उम्र
सुनता हूँ आज मौत की बाँहों में सो गया

हरकत किसी में है न हरारत किसी में है
क्या शहर था जो बर्फ़ की चट्टान हो गया

मैं उस को नफ़रतों के सिवा कुछ न दे सका
वो चाहतों का बीज मिरे दिल में बो गया

मरहम तो रख सका न कोई मेरे ज़ख़्म पर
जो आया एक निश्तर-ए-ताज़ा चुभो गया

या कीजिए क़ुबूल कि हर चेहरा ज़र्द है
या कहिए हर निगाह को यरक़ान हो गया

मैं ने तो अपने ग़म की कहानी सुनाई थी
क्यूँ अपने अपने ग़म में हर इक शख़्स खो गया

उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं
मेरा न हो सका वो किसी का तो हो गया

इक माह-वश ने चूम ली पेशानी-ए-'हफ़ीज़'
दिलचस्प हादसा था जो कल रात हो गया