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यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे | शाही शायरी
yar bhi rah ki diwar samajhte hain mujhe

ग़ज़ल

यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे

शाहिद ज़की

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यार भी राह की दीवार समझते हैं मुझे
मैं समझता था मिरे यार समझते हैं मुझे

जड़ उखड़ने से झुकाव है मिरी शाख़ों में
दूर से लोग समर-बार समझते हैं मुझे

क्या ख़बर कल यही ताबूत मिरा बन जाए
आप जिस तख़्त का हक़दार समझते हैं मुझे

नेक लोगों में मुझे नेक गिना जाता है
और गुनहगार गुनहगार समझते हैं मुझे

मैं तो ख़ुद बिकने को बाज़ार में आया हुआ हूँ
और दुकाँ-दार ख़रीदार समझते हैं मुझे

मैं बदलते हुए हालात में ढल जाता हूँ
देखने वाले अदाकार समझते हैं मुझे

वो जो उस पार हैं इस पार मुझे जानते हैं
ये जो इस पार हैं उस पार समझते हैं मुझे

मैं तो यूँ चुप हूँ कि अंदर से बहुत ख़ाली हूँ
और ये लोग पुर-असरार समझते हैं मुझे

रौशनी बाँटता हूँ सरहदों के पार भी मैं
हम-वतन इस लिए ग़द्दार समझते हैं मुझे

जुर्म ये है कि इन अंधों में हूँ आँखों वाला
और सज़ा ये है कि सरदार समझते हैं मुझे

लाश की तरह सर-ए-आब हूँ मैं और 'शाहिद'
डूबने वाले मदद-गार समझते हैं मुझे