EN اردو
वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई | शाही शायरी
wo zindagi hai usko KHafa kya kare koi

ग़ज़ल

वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई

अख़्तर होशियारपुरी

;

वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई
पानी को साहिलों से जुदा क्या करे कोई

बारिश का पहला क़तरा ही बस्ती डुबो गया
अब अपनी जाँ का क़र्ज़ अदा क्या करे कोई

जब गर्द उड़ रही हो हरीम-ए-ख़याल में
आईना देखने के सिवा क्या गिरे कोई

वो क्या गए कि शहर ही वीरान हो गया
अब जंगलों में रह के सदा क्या करे कोई

अपने बदन की आग से शमएँ जलाइए
कच्चे घरों में जश्न-ए-हिना क्या करे कोई

ज़हराब-ए-ज़िंदगी तो रगों में उतर गया
अब ऐ ग़म-ए-फ़िराक़ बता क्या करे कोई

मिट्टी से खेलता हुआ रिज़्क़-ए-हवा हुआ
'अख़्तर' अब और शरह-ए-वफ़ा क्या करे कोई