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वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था | शाही शायरी
wo lamha mujhko shashdar kar gaya tha

ग़ज़ल

वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था

अम्बर बहराईची

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वो लम्हा मुझ को शश्दर कर गया था
मिरे अंदर भी लावा भर गया था

है दोनों सम्त वीरानी का आलम
इसी रस्ते से वो लश्कर गया था

गुज़ारी थी भँवर में उस ने लेकिन
वो माँझी साहिलों से डर गया था

क़लंदर मुतमइन था झोंपड़े में
अबस उस के लिए महज़र गया था

न जाने कैसी आहट थी फ़ज़ा में
वो दिन ढलते ही अपने घर गया था

अभी तक बाम-ओ-दर हैं फूल जैसे
मिरे घर भी वो खुश-मंज़र गया था

सितारे बा-अदब ठहरे हुए थे
ख़ला में एक ख़ुश-पैकर गया था

इधर आँखों में मेरी धूल ठहरी
उधर शबनम से मंज़र भर गया था

मगर तिश्ना-लबी ठहरी मुक़द्दर
नदी के पास भी 'अम्बर' गया था