EN اردو
वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी | शाही शायरी
wo jo diwar-e-ashnai thi

ग़ज़ल

वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी

अख़्तर होशियारपुरी

;

वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी
अपनी ही ज़ात की इकाई थी

मैं सर-ए-दश्त-ए-जाँ था आवारा
और घर में बहार आई थी

मैले कपड़ों का अपना रंग भी था
फिर भी क़िस्मत में जग-हँसाई थी

अब तो आँखों में अपना चेहरा है
कभी शीशे से आश्नाई थी

अपनी ही ज़ात में था मैं महफ़ूज़
और फिर ख़ुद ही से लड़ाई थी

अपनी आवाज़ से भी डरता था
हाए क्या चीज़ आश्नाई थी

ज़िंदगी गर्द गर्द थी 'अख़्तर'
जाने लुट कर कहाँ से आई थी