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वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी | शाही शायरी
wafa ki KHair manata hun bewafai mein bhi

ग़ज़ल

वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी
मैं उस की क़ैद में हूँ क़ैद से रिहाई में भी

लहू की आग में जल-बुझ गए बदन तो खुला
रसाई में भी ख़सारा है ना-रसाई में भी

बदलते रहते हैं मौसम गुज़रता रहता है वक़्त
मगर ये दिल कि वहीं का वहीं जुदाई में भी

लिहाज़-ए-हुर्मत-ए-पैमाँ न पास-ए-हम-ख़्वाबी
अजब तरह के तसादुम थे आश्नाई में भी

मैं दस बरस से किसी ख़्वाब के अज़ाब में हूँ
वही अज़ाब दर आया है इस दहाई में भी

तसादुम-ए-दिल-ओ-दुनिया में दिल की हार के बा'द
हिजाब आने लगा है ग़ज़ल-सराई में भी

मैं जा रहा हूँ अब उस की तरफ़ उसी की तरफ़
जो मेरे साथ था मेरी शिकस्ता-पाई में भी