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उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले | शाही शायरी
uljhe kanTon se ki khele gul-e-tar se pahle

ग़ज़ल

उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले

अली सरदार जाफ़री

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उलझे काँटों से कि खेले गुल-ए-तर से पहले
फ़िक्र ये है कि सबा आए किधर से पहले

जाम-ओ-पैमाना-ओ-साक़ी का गुमाँ था लेकिन
दीदा-ए-तर ही था याँ दीदा-ए-तर से पहले

अब्र-ए-नैसाँ की न बरकत है न फ़ैज़ान-ए-बहार
क़तरे गुम हो गए ता'मीर-ए-गुहर से पहले

जम गया दिल में लहू सूख गए आँखों में अश्क
थम गया दर्द-ए-जिगर रंग-ए-सहर से पहले

क़ाफ़िले आए तो थे नारों के परचम ले कर
सर-निगूँ हो गई हर आह असर से पहले

ख़ून-ए-सर बह गया मौत आ गई दीवानों को
बारिश-ए-संग से तूफ़ान-ए-शरर से पहले

सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-तमन्ना की महक आती है
दिल कोई टूटा है शायद गुल-ए-तर से पहले

मक़तल-ए-शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत
दिल भी क़ातिल को दिया करते हैं सर से पहले