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तासीर सब्र में न असर इज़्तिराब में | शाही शायरी
tasir sabr mein na asar iztirab mein

ग़ज़ल

तासीर सब्र में न असर इज़्तिराब में

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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तासीर सब्र में न असर इज़्तिराब में
बेचारगी से जान पड़ी किस अज़ाब में

बे-नाला मुँह से झड़ते हैं बे-गिर्या आँख से
अजज़ा-ए-दिल का हाल न पूछ इज़्तिराब में

चर्ख़ ओ ज़मीं में तौबा का मिलता नहीं सुराग़
हंगामा-ए-बहार ओ हुजूम-ए-सहाब में

ऐ ज़ोहरा-चेहरा दुश्मन-ए-मनहूस को न देख
नाले बहेंगे ख़ून के इस फ़तह-याब में

इतनी कुदूरत अश्क में हैराँ हूँ क्या कहूँ
दरिया में है सराब कि दरिया सराब में

फ़िक्र-ए-मआल से मय ओ शाहिद रहे अज़ीज़
पीरी में मौत याद थी पीरी शबाब में

तुम निकले बहर-ए-सैर तो निकलेगा मेहर भी
होवेगा इज्तिमा शब-ए-माहताब में

डूबी हुजूम-ए-अश्क से कश्ती ज़मीन की
माही को इज़्तिराब हुआ जोश-ए-आब में

खोला जो दफ़्तर-ए-गिला अपना ज़ियाँ किया
गुज़री शब-ए-विसाल सितम के हिसाब में

ऐ हश्र जल्द कर तह-ओ-बाला जहान को
यूँ कुछ न हो उम्मीद तो है इंक़िलाब में

क़ातिल जफ़ा से बाज़ न आया वफ़ा से हम
फ़ितराक में जो सर है तो जाँ है रिकाब में

बाज़ीचा कर दिया सितम-ए-यार ओ जौर-ए-चर्ख़
तिफ़्ली से ग़लग़ला है मिरा शैख़ ओ शाब में

'मोमिन' ये आलम उस सनम-ए-जाँ-फ़ज़ा का है
दिल लग गया जहान-ए-सरासर-ख़राब में