EN اردو
सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती | शाही शायरी
surahi ka bharam khulta na meri tishnagi hoti

ग़ज़ल

सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती

क़ाबिल अजमेरी

;

सुराही का भरम खुलता न मेरी तिश्नगी होती
ज़रा तुम ने निगाह-ए-नाज़ को तकलीफ़ दी होती

मक़ाम-ए-आशिक़ी दुनिया ने समझा ही नहीं वर्ना
जहाँ तक तेरा ग़म होता वहीं तक ज़िंदगी होती

तुम्हारी आरज़ू क्यूँ दिल के वीराने में आ पहुँची
बहारों में पली होती सितारों में रही होती

ज़माने की शिकायत क्या ज़माना किस की सुनता है
मगर तुम ने तो आवाज़-ए-जुनूँ पहचान ली होती

ये सब रंगीनियाँ ख़ून-ए-तमन्ना से इबारत हैं
शिकस्त-ए-दिल न होती तो शिकस्त-ए-ज़िंदगी होती

रज़ा-ए-दोस्त 'क़ाबिल' मेरा मेयार-ए-मोहब्बत है
उन्हें भी भूल सकता था अगर उन की ख़ुशी होती