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सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमाँ क्यूँ है | शाही शायरी
subh har ujale pe raat ka guman kyun hai

ग़ज़ल

सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमाँ क्यूँ है

अली सरदार जाफ़री

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सुब्ह हर उजाले पे रात का गुमाँ क्यूँ है
जल रही है क्या धरती अर्श पे धुआँ क्यूँ है

ख़ंजरों की साज़िश पर कब तलक ये ख़ामोशी
रूह क्यूँ है यख़-बस्ता नग़्मा बे-ज़बाँ क्यूँ है

रास्ता नहीं चलते सिर्फ़ ख़ाक उड़ाते हैं
कारवाँ से भी आगे गर्द-ए-कारवाँ क्यूँ है

कुछ कमी नहीं लेकिन कोई कुछ तो बतलाओ
इश्क़ इस सितमगर का शौक़ का ज़ियाँ क्यूँ है

हम तो घर से निकले थे जीतने को दिल सब का
तेग़ हाथ में क्यूँ है दोश पर कमाँ क्यूँ है

ये है बज़्म-ए-मय-नोशी इस में सब बराबर हैं
फिर हिसाब-ए-साक़ी में सूद क्यूँ ज़ियाँ क्यूँ है

देन किस निगह की है किन लबों की बरकत है
तुम में 'जाफ़री' इतनी शोख़ी-ए-बयाँ क्यूँ है