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शोर सा एक हर इक सम्त बपा लगता है | शाही शायरी
shor sa ek har ek samt bapa lagta hai

ग़ज़ल

शोर सा एक हर इक सम्त बपा लगता है

अदीम हाशमी

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शोर सा एक हर इक सम्त बपा लगता है
वो ख़मोशी है कि लम्हा भी सदा लगता है

कितना साकित नज़र आता है हवाओं का बदन
शाख़ पर फूल भी पथराया हुआ लगता है

चीख़ उठती हुई हर घर से नज़र आती है
हर मकाँ शहर का आसेब-ज़दा लगता है

आँख हर राह से चिपकी ही चली जाती है
दिल को हर मोड़ पे कुछ खोया हुआ लगता है

कितना हासिद हूँ कि इक तू ही मिरा अपना है
और तू ठीक से हँसता भी बुरा लगता है

मेरे एहसास ने सावन में गँवाई है नज़र
मुझ को सूखा हुआ जंगल भी हरा लगता है