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शायद मिरे बदन की रुस्वाई चाहता है | शाही शायरी
shayad mere badan ki ruswai chahta hai

ग़ज़ल

शायद मिरे बदन की रुस्वाई चाहता है

क़तील शिफ़ाई

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शायद मिरे बदन की रुस्वाई चाहता है
दरवाज़ा मेरे घर का बीनाई चाहता है

औक़ात-ए-ज़ब्त उस को ऐ चश्म-ए-तर बता दे
ये दिल समुंदरों की गहराई चाहता है

शहरों में वो घुटन है इस दौर में कि इंसाँ
गुमनाम जंगलों की पुर्वाई चाहता है

कुछ ज़लज़ले समो कर ज़ंजीर की खनक में
इक रक़्स-ए-वालेहाना सौदाई चाहता है

कुछ इस लिए भी अपने चर्चे हैं शहर भर में
इक पारसा हमारी रुस्वाई चाहता है

हर शख़्स की जबीं पर करते हैं रक़्स तारे
हर शख़्स ज़िंदगी की रा'नाई चाहता है

अब छोड़ साथ मेरा ऐ याद-ए-नौ-जवानी
इस उम्र का मुसाफ़िर तन्हाई चाहता है

मैं जब 'क़तील' अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
अब मेरा प्यार मुझ से दानाई चाहता है