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शायद आग़ाज़ हुआ फिर किसी अफ़्साने का | शाही शायरी
shayad aaghaz hua phir kisi afsane ka

ग़ज़ल

शायद आग़ाज़ हुआ फिर किसी अफ़्साने का

शकील बदायुनी

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शायद आग़ाज़ हुआ फिर किसी अफ़्साने का
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने का

उन से कुछ कह तो रहा हूँ मगर अल्लाह करे
वो भी मफ़्हूम न समझें मिरे अफ़्साने का

देखना देखना ये हज़रत-ए-वाइज़ ही न हों
रास्ता पूछ रहा है कोई मय-ख़ाने का

बे-तअल्लुक़ तिरे आगे से गुज़र जाता है
ये भी इक हुस्न-ए-तलब है तिरे दीवाने का

हश्र तक गर्मी-ए-हँगामा-ए-हस्ती है 'शकील'
सिलसिला ख़त्म न होगा मिरे अफ़्साने का