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शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं | शाही शायरी
sham tak subh ki nazron se utar jate hain

ग़ज़ल

शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं

वसीम बरेलवी

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शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं

फिर वही तल्ख़ी-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी
नश्शे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं

इक जुदाई का वो लम्हा कि जो मरता ही नहीं
लोग कहते थे कि सब वक़्त गुज़र जाते हैं

घर की गिरती हुई दीवारें ही मुझ से अच्छी
रास्ता चलते हुए लोग ठहर जाते हैं

हम तो बे-नाम इरादों के मुसाफ़िर हैं 'वसीम'
कुछ पता हो तो बताएँ कि किधर जाते हैं