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सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं | शाही शायरी
sawad-e-sham na rang-e-sahar ko dekhte hain

ग़ज़ल

सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं

अहमद महफ़ूज़

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सवाद-ए-शाम न रंग-ए-सहर को देखते हैं
बस इक सितारा-ए-वहशत-असर को देखते हैं

किसी के आने की जिस से ख़बर भी आती नहीं
न जाने कब से उसी रहगुज़र को देखते हैं

ख़ुदा-गवाह कि आईना-ए-नफ़स ही में हम
ख़ुद अपनी ज़िंदगी-ए-मुख़्तसर को देखते हैं

तो क्या बस एक ठिकाना वही है दुनिया में
वो दर नहीं तो किसी और दर को देखते हैं

सुना है शहर का नक़्शा बदल गया 'महफ़ूज़'
तो चल के हम भी ज़रा अपने घर को देखते हैं