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सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है | शाही शायरी
sahra pe bura waqt mere yar paDa hai

ग़ज़ल

सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है

मुनव्वर राना

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सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
दीवाना कई रोज़ से बीमार पड़ा है

सब रौनक़-ए-सहरा थी इसी पगले के दम से
उजड़ा हुआ दीवाने का दरबार पड़ा है

आँखों से टपकती है वही वहशत-ए-सहरा
काँधे भी बताते हैं बड़ा बार पड़ा है

दिल में जो लहू-झील थी वो सूख चुकी है
आँखों का दो-आबा है सो बे-कार पड़ा है

तुम कहते थे दिन हो गए देखा नहीं उस को
लो देख लो ये आज का अख़बार पड़ा है

ओढ़े हुए उम्मीद की इक मैली सी चादर
दरवाज़ा-ए-बख़्शिश पे गुनहगार पड़ा है

ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूँ
महँगाई के मौसम में ये त्यौहार पड़ा है