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सब्र वहशत-असर न हो जाए | शाही शायरी
sabr wahshat-asar na ho jae

ग़ज़ल

सब्र वहशत-असर न हो जाए

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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सब्र वहशत-असर न हो जाए
कहीं सहरा भी घर न हो जाए

रश्क-ए-पैग़ाम है इनाँ-कश-ए-दिल
नामा-बर राहबर न हो जाए

देखो मत देखियो कि आईना
ग़श तुम्हें देख कर न हो जाए

हिज्र-ए-पर्दा-नशीं में मरते हैं
ज़िंदगी पर्दा-ए-दर न हो जाए

कसरत-ए-सज्दा से वो नक़्श-ए-क़दम
कहीं पामाल-ए-सर न हो जाए

मेरे तग़ईर-ए-रंग को मत देख
तुझ को अपनी नज़र न हो जाए

मेरे आँसू न पोंछना देखो
कहीं दामान तर न हो जाए

बात नासेह से करते डरता हूँ
कि फ़ुग़ाँ बे-असर न हो जाए

ऐ क़यामत न आइयो जब तक
वो मिरी गोर पर न हो जाए

माना-ए-ज़ुल्म है तग़ाफ़ुल-ए-यार
बख़्त-ए-बद को ख़बर न हो जाए

ग़ैर से बे-हिजाब मिलते हो
शब-ए-आशिक़ सहर न हो जाए

रश्क-ए-दुश्मन का फ़ाएदा मालूम
मुफ़्त जी का ज़रर न हो जाए

ऐ दिल आहिस्ता आह-ए-ताब-शिकन
देख टुकड़े जिगर न हो जाए

'मोमिन' ईमाँ क़ुबूल दिल से मुझे
वो बुत आज़ुर्दा गर न हो जाए