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साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना | शाही शायरी
sazgar hai hamdam in dinon jahan apna

ग़ज़ल

साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना

असरार-उल-हक़ मजाज़

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साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना
इश्क़ शादमाँ अपना शौक़ कामराँ अपना

आह बे-असर किस की नाला ना-रसा किस का
काम बार-हा आया जज़्बा-ए-निहाँ अपना

कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना

उलझनों से घबराए मय-कदे में दर आए
किस क़दर तन-आसाँ है ज़ौक़-ए-राएगाँ अपना

कुछ न पूछ ऐ हमदम इन दिनों मिरा आलम
मुतरिब-ए-हसीं अपना साक़ी-ए-जवाँ अपना

इश्क़ और रुस्वाई कौन सी नई शय है
इश्क़ तो अज़ल से था रुस्वा-ए-जहाँ अपना

तुम 'मजाज़' दीवाने मस्लहत से बेगाने
वर्ना हम बना लेते तुम को राज़-दाँ अपना