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रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं | शाही शायरी
ruk ja hujum-e-gul ki abhi hausla nahin

ग़ज़ल

रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं

ज़ेहरा निगाह

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रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं
दिल से ख़याल-ए-तंगी-ए-दामाँ गया नहीं

जो कुछ हैं संग-ओ-ख़िश्त हैं या गर्द-ए-रह-गुज़र
तुम तक जो आए उन का कोई नक़्श-ए-पा नहीं

हर आस्ताँ पे लिख्खा है अब नाम-ए-शहर-यार
वाबिस्तगान-ए-दिल कै लिए कोई जा नहीं

सद-हैफ़ उस के हाथ है हर ज़ख़्म का रफ़ू
दामन में जिस के एक भी तार-ए-वफ़ा नहीं