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रोने से जो भड़ास थी दिल की निकल गई | शाही शायरी
rone se jo bhaDas thi dil ki nikal gai

ग़ज़ल

रोने से जो भड़ास थी दिल की निकल गई

आग़ा शाएर क़ज़लबाश

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रोने से जो भड़ास थी दिल की निकल गई
आँसू बहाए चार तबीअत सँभल गई

मैं ने तरस तरस के गुज़ारी है सारी उम्र
मेरी न होगी जान जो हसरत निकल गई

बेचैन हूँ मैं जब से नहीं दिल-लगी कहीं
वो दर्द क्या गया कि मिरे दिल की कल गई

कहता है चारागर कि न पाएगा इंदिमाल
अच्छा हुआ कि ज़ख़्म की सूरत बदल गई

ऐ शम्अ हम से सोज़-ए-मोहब्बत के ज़ब्त सीख
कम-बख़्त एक रात में सारी पिघल गई

शाख़-ए-निहाल-ए-उम्र हमारी न फल सकी
ये तो है वो कली जो निकलते ही जल गई

देखा जो उस ने प्यार से अग़्यार की तरफ़
'शाइर' क़सम ख़ुदा की मिरी जान जल गई