EN اردو
रंगीं बना के दामन-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर को मैं | शाही शायरी
rangin bana ke daman-e-zaKHm-e-jigar ko main

ग़ज़ल

रंगीं बना के दामन-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर को मैं

अनवर सहारनपुरी

;

रंगीं बना के दामन-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर को मैं
गुलज़ार कर रहा हूँ फ़ज़ा-ए-नज़र को मैं

गाता हूँ साज़-ए-दिल पे तराने सहर को मैं
बेदार कर रहा हूँ किसी फ़ित्ना-गर को मैं

मुल्ज़िम नज़र है या सर-ए-शोरीदा का क़ुसूर
का'बा समझ रहा हूँ तिरे संग-ए-दर को मैं

चुन कर गुल-ए-नियाज़ क़रीब-ए-बिसात-ए-दिल
बाग़-ए-इरम बनाता हूँ दाग़-ए-जिगर को मैं

वहशी बना हुआ है मिरी मानता नहीं
अल्लाह क्या करूँ दिल-ए-शोरीदा-सर को मैं

ऐ हुस्न-ए-दिल-नवाज़ मिरी हिम्मतें तो देख
दिल दे के मूल लेता हूँ दर्द-ए-जिगर को मैं

संग-ए-दर-ए-हबीब को का'बा बना न लूँ
जल्वा समझ के हुस्न-ए-फ़रेब-ए-नज़र को मैं

ज़ाहिद नमाज़-ए-इश्क़ की तज्दीद के लिए
फिर उस के नक़्श-ए-पा पे झुकाता हूँ सर को मैं

मेरी तरह मुझे वो नज़र आएँ बे-क़रार
करता हूँ अपनी आह में पैदा असर को मैं

शायद नियाज़-मंद को हासिल नियाज़ हो
हसरत से तक रहा हूँ तिरी रहगुज़र को मैं

करता हूँ ज़ब्त-ए-ग़म कि न खुल जाए राज़-ए-इश्क़
दिल में छुपा के रखता हूँ तीर-ए-नज़र को मैं

'अनवर' गईं न दिल की मिरे बद-गुमानियाँ
रहज़न समझ रहा हूँ हर इक राहबर को मैं