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क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों | शाही शायरी
qahat-e-wafa-e-ahd-o-paiman hai in dinon

ग़ज़ल

क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों

ज़ुहूर नज़र

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क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों
ज़ोरों पे एहतियात-ए-दिल-ओ-जाँ है इन दिनों

मलऊन हैं जो मौसम-ए-गुल के जुनूँ में हैं
मतरूक रस्म-ए-चाक-गरेबाँ है इन दिनों

ये रस्म-ए-रफ़्तगाँ थी फ़रामोश हो गई
अपने किए पे कौन पशेमाँ है इन दिनों

आँखें हैं ख़ुश्क सूरत-ए-सहरा-ए-बे-गियाह
सीना हुजूम-ए-अश्क से गिर्यां है इन दिनों

ये कैसा ओहदा है कि मिरी चश्म-ए-ख़्वाब में
नक़्श-ए-क़दम भी दीदा-ए-जबराँ है इन दिनों

डरता हूँ अपने साँस की सुनता हूँ जब सदा
दहशत बहुत क़रीब-ए-रग-ए-जाँ है इन दिनों

दीदा-दरों के घर पे मुसल्लत है तीरगी
अंधों की अंजुमन में चराग़ाँ है इन दिनों

बद-तर है जानवर से भी दानिशवरों का हाल
जो सोचता नहीं है वो इंसाँ है इन दिनों

हर बुल-हवस धनी है मुक़द्दर का आज-कल
हर बे-ज़मीर साहब-ए-इम्काँ है इन दिनों

तुझ से गिला नहीं है कि तू फिर भी ग़ैर था
मेरा वजूद मुझ से गुरेज़ाँ है इन दिनों

जी चाहता है रू-ए-ज़मीं पर बिखेर दूँ
जो दर्द मेरी रूह में पिन्हाँ है इन दिनों

कैसे छुड़ाऊँ कैसे लिखूँ शरह-ए-दर्द-ए-नौ
हर एक लफ़्ज़ ज़ीनत-ए-ज़िंदाँ है इन दिनों

यादों के फूल हद्द-ए-नज़र तक खिले हैं फिर
दश्त-ए-फ़िराक़ रश्क-ए-गुलिस्ताँ है इन दिनों