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फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए | शाही शायरी
phir aaina-e-alam shayad ki nikhar jae

ग़ज़ल

फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए
फिर अपनी नज़र शायद ता-हद्द-ए-नज़र जाए

सहरा पे लगे पहरे और क़ुफ़्ल पड़े बन पर
अब शहर-बदर हो कर दीवाना किधर जाए

ख़ाक-ए-रह-ए-जानाँ पर कुछ ख़ूँ था गिरौ अपना
इस फ़स्ल में मुमकिन है ये क़र्ज़ उतर जाए

देख आएँ चलो हम भी जिस बज़्म में सुनते हैं
जो ख़ंदा-ब-लब आए वो ख़ाक-बसर जाए

या ख़ौफ़ से दर-गुज़रें या जाँ से गुज़र जाएँ
मरना है कि जीना है इक बात ठहर जाए