नीची नज़रों के वार आने लगे
लो बस अब जान-ओ-दिल ठिकाने लगे
मेरी नज़रों ने क्या कहा यारब
क्यूँ वो शरमा के मुस्कुराने लगे
मस्लहत तर्क-ए-जौर था चंदे
फिर उसी हथकंडों पे आने लगे
जल्वा-ए-यार ने किया बे-ख़ुद
हम तो आते ही उन के जाने लगे
सब का काबा है मंज़िल-ए-मक़्सूद
हम तो आगे क़दम बढ़ाने लगे
क्या कहीं आमद-ए-बहार हुई
क्यूँ गरेबाँ पे हाथ जाने लगे
गर हक़ीक़त-निगर हो चश्म तो वो
जल्वा हर रंग में दिखाने लगे
हम को रब्त-ए-गुज़िश्ता याद आए
वो जो बन-ठन के घर से जाने लगे
बस यही ग़ायत-ए-तसव्वुर है
हिज्र में लुत्फ़-ए-वस्ल आने लगे
उस सरापा बहार के जल्वे
रंग कुछ और ही न खाने लगे
क्यूँ कि फ़ुर्सत अदू से तुम को मिली
जो तसव्वुर में मेरे आने लगे
बे-ग़िज़ा के तो रह नहीं सकते
न मिला कुछ तो ज़हर खाने लगे
बात बनती नज़र नहीं आती
अब वो बातें बहुत बनाने लगे
आज 'मजरूह' ज़ब्त कर न सका
क्या करे जब कि जान जाने लगे
ग़ज़ल
नीची नज़रों के वार आने लगे
मीर मेहदी मजरूह