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नंग नहीं मुझ को तड़पने से सँभल जाने का | शाही शायरी
nang nahin mujhko taDapne se sambhal jaane ka

ग़ज़ल

नंग नहीं मुझ को तड़पने से सँभल जाने का

वली उज़लत

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नंग नहीं मुझ को तड़पने से सँभल जाने का
डर है इस ख़ंजर-ए-मिज़्गाँ के फिसल जाने का

नब्ज़-ए-ज़ंजीर के हिलने से छुटे है आशिक़
बुल-हवस कहवे हुआ शौक़ निकल जाने का

गरचे वो रश्क-ए-चमन मुझ से है बाग़ी लेकिन
आतिश-ए-गुल से है ख़ौफ़ उस के कुम्हल जाने का

तल्ख़ लगता है उसे शहर की बस्ती का स्वाद
ज़ौक़ है जिस को बयाबाँ के निकल जाने का

जूँ सबा ख़ानक़हों में जो कभू जाता हूँ
क़स्द है ग़ुंचा अमामों के कुचल जाने का