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न वो नालों की शोरिश है न ग़ुल है आह-ओ-ज़ारी का | शाही शायरी
na wo nalon ki shorish hai na ghul hai aah-o-zari ka

ग़ज़ल

न वो नालों की शोरिश है न ग़ुल है आह-ओ-ज़ारी का

मीर मेहदी मजरूह

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न वो नालों की शोरिश है न ग़ुल है आह-ओ-ज़ारी का
वो अब पहला सा हंगामा नहीं है बे-क़रारी का

तलब कैसी बुलाना क्या वहाँ ख़ुद जा पहुँचते हैं
अगर आलम यही चंदे रहा बे-अख़्तियारी का

वहाँ वो नाज़-ओ-इश्वे से क़दम गिन गिन के रखते हैं
यहाँ इस मुंतज़िर का वक़्त पहुँचा दम-शुमारी का

कभी चश्म-ए-ख़ुमार-आलूद की मस्ती नहीं देखी
बजा है हज़रत-ए-नासेह को दा'वा होशियारी का

भला क्या ऐसी रोती शक्ल पास आ कर कोई बैठे
उठे आख़िर वो झुँझला कर बुरा हो अश्क-बारी का

अजब क्या है कि क़ासिद भूल जाए उस का ले जाना
लिखूँ जिस नामे में शिकवा तिरी ग़फ़्लत-शिआरी का

मिसाल-ए-नख़्ल देखा है उसी को फूलते-फलते
किया जिस शख़्स ने हासिल तरीक़ा ख़ाकसारी का

हर इक शय का है अंदाज़ा मगर पायाँ नहीं हरगिज़
तिरी ग़फ़लत-शिआरी का मिरी उम्मीद-वारी का

ज़ि-बस आँखों में रंगत छा रही है लाला-ओ-गुल की
ख़िज़ाँ में लुत्फ़ आता है हमें फ़स्ल-ए-बहारी का

कभी सर पाँव पर रखना कभी क़ुर्बान कह उठना
हमें थोड़ा सा ढब आता तो है मतलब-बरारी का

छुपा कल गोशा-ए-मय-ख़ाना में 'मजरूह' ने देखा
यूँही शोहरा सुना था शैख़ की परहेज़-गारी का