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न तीरगी के लिए हूँ न रौशनी के लिए | शाही शायरी
na tirgi ke liye hun na raushni ke liye

ग़ज़ल

न तीरगी के लिए हूँ न रौशनी के लिए

ऐन सलाम

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न तीरगी के लिए हूँ न रौशनी के लिए
सितारा-ए-सहरी हूँ मैं ज़िंदगी के लिए

ये कौन वक़्त की सूरत मुझे बदलता है
ये क्या किसी के लिए कुछ हूँ कुछ किसी के लिए

सराब-ए-ख़्वाब की ताबीर जू-ए-आब सही
मैं सोचता हूँ मगर दश्त-ए-तिश्नगी के लिए

वो मुतमइन हूँ गुमाँ को यक़ीं समझता हूँ
यक़ीं कि ख़ुद नहीं कुछ कम जो गुमरही के लिए

कहीं वो मेरी तरह मेरा आश्ना ही न हो
हज़ार ख़्वाब बुनूँ मैं जिस अजनबी के लिए

वो आसमाँ हो कि सहरा वजूद हो कि अदम
फ़ज़ा बनी है ये किस शरह-ए-ख़ामुशी के लिए