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न हम-आहंग-ए-मसीहा न हरीफ़-ए-जिब्रील | शाही शायरी
na ham-ahang-e-masiha na harif-e-jibril

ग़ज़ल

न हम-आहंग-ए-मसीहा न हरीफ़-ए-जिब्रील

असरार-उल-हक़ मजाज़

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न हम-आहंग-ए-मसीहा न हरीफ़-ए-जिब्रील
तेरा शाइर कि है ज़िंदानीए-गेसू-ए-जमील

किस की आँखों में ये ग़लताँ है जवानी की शराब
खोल दी आह ये किस ने मय-ए-गुल-गूँ की सबील

किस तरफ़ जाए कहाँ जाए बता दो कोई
ज़ुल्फ़-ए-पुर-ख़म का गिरफ़्तार निगाहों का क़तील

आलम-ए-यास में क्या चीज़ है इक साग़र-ए-मय
दश्त-ए-ज़ुल्मात में जिस तरह ख़िज़्र की क़िंदील

कितनी दुश्वार है पीरान-ए-हरम की मंज़िल
इस तरफ़ फ़ित्ना-ए-इब्लीस उधर रब्ब-ए-जलील

उफ़ ये तूफ़ान-ए-नशात और मिरी तब-ए-हज़ीं
आह ये यूरिश-ए-नाज़ और मैं मजरूह ओ अलील

आह वो होश का आलम वो ग़मों का तूफ़ाँ
उफ़ ये मस्ती कि है फिर होश में आने की दलील