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न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना | शाही शायरी
na durweshon ka KHirqa chahiye na taj-e-shahana

ग़ज़ल

न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना

बहादुर शाह ज़फ़र

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न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना

किताबों में धरा है क्या बहुत लिख लिख के धो डालीं
हमारे दिल पे नक़्श-ए-कल-हज्र है तेरा फ़रमाना

ग़नीमत जान जो दम गुज़रे कैफ़ियत से गुलशन में
दिए जा साक़ी-ए-पैमाँ-शिकन भर भर के पैमाना

न देखा वो कहीं जल्वा जो देखा ख़ाना-ए-दिल में
बहुत मस्जिद में सर मारा बहुत सा ढूँडा बुत-ख़ाना

कुछ ऐसा हो कि जिस से मंज़िल-ए-मक़्सूद को पहुँचूँ
तरीक़-ए-पारसाई होवे या हो राह-ए-रिंदाना

ये सारी आमद-ओ-शुद है नफ़स की आमद-ओ-शुद पर
इसी तक आना जाना है न फिर जाना न फिर आना

'ज़फ़र' वो ज़ाहिद-ए-बेदर्द की हू-हक़ से बेहतर है
करे गर रिंद दर्द-ए-दिल से हाव-हु-ए-मस्ताना