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न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते | शाही शायरी
na bhul kar bhi tamanna-e-rang-o-bu karte

ग़ज़ल

न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते

अख़्तर शीरानी

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न भूल कर भी तमन्ना-ए-रंग-ओ-बू करते
चमन के फूल अगर तेरी आरज़ू करते

जनाब-ए-शैख़ पहुँच जाते हौज़-ए-कौसर तक
अगर शराब से मय-ख़ाने में वज़ू करते

मसर्रत आह तू बस्ती है किन सितारों में
ज़मीं पे उम्र हुई तेरी जुस्तुजू करते

अयाग़-ए-बादा में आ कर वो ख़ुद छलक पड़ता
गर उस के मस्त ज़रा और हाव हू करते

उन्हें मफ़र न था इक़रार-ए-इश्क़ से लेकिन
हया को ज़िद थी कि वो पास-ए-आबरू करते

पुकार उठता वो आ कर दिलों की धड़कन में
हम अपने सीने में गर उस की जुस्तुजू करते

ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना
ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते

गिराँ था साक़ी-ए-दौराँ पे एक साग़र भी
तो किस उमीद पे हम ख़्वाहिश-ए-सुबू करते

जुनून-ए-इश्क़ की तासीर तो ये थी 'अख़्तर'
कि हम नहीं वो ख़ुद इज़हार-ए-आरज़ू करते