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मुलाक़ातों का ऐसा सिलसिला रक्खा है तुम ने | शाही शायरी
mulaqaton ka aisa silsila rakkha hai tumne

ग़ज़ल

मुलाक़ातों का ऐसा सिलसिला रक्खा है तुम ने

सलीम कौसर

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मुलाक़ातों का ऐसा सिलसिला रक्खा है तुम ने
बदन क्या रूह में भी रत-जगा रक्खा है तुम ने

कोई आसाँ नहीं था ज़िंदगी से कट के जीना
बहुत मुश्किल दिनों में राब्ता रक्खा है तुम ने

हम ऐसे मिलने वालों को कहाँ उस की ख़बर थी
न मिलने का भी कोई रास्ता रक्खा है तुम ने

जुनूँ की हालतों का हम को अंदाज़ा नहीं था
दिए कि शह पे सूरज को बुझा रक्खा है तुम ने

हवा को हब्स करना हो तो कोई तुम से सीखे
दरीचे बंद दरवाज़ा खुला रक्खा है तुम ने

अब ऐसा है कि दुनिया से उलझते फिर रहे हैं
अजब कैफ़ियतों में मुब्तिला रक्खा है तुम ने

ख़िज़ाँ जैसे हरे पेड़ों को रुस्वा कर रही है
सुलूक ऐसा ही कुछ हम से रवा रक्खा है तुम ने

रिहाई के लिए ज़ंजीर पहनाई गई थी
असीरी के लिए पहरा उठा रक्खा है तुम ने

बुरीदा अक्स लर्ज़ां हैं लहू की वहशतों में
ये कैसा आईना-ख़ाना सजा रक्खा है तुम ने

जहाँ किरदार गूँगे देखने वाले हैं अंधे
इसी मंज़र से तो पर्दा हटा रक्खा है तुम ने

मोहब्बत करने वाले अब कहाँ जा कर मिलेंगे
गुज़रगाहों को तो मक़्तल बना रक्खा है तुम ने