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मुझे बुझा दे मिरा दौर मुख़्तसर कर दे | शाही शायरी
mujhe bujha de mera daur muKHtasar kar de

ग़ज़ल

मुझे बुझा दे मिरा दौर मुख़्तसर कर दे

वसीम बरेलवी

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मुझे बुझा दे मिरा दौर मुख़्तसर कर दे
मगर दिए की तरह मुझ को मो'तबर कर दे

बिखरते टूटते रिश्तों की उम्र ही कितनी
मैं तेरी शाम हूँ आ जा मिरी सहर कर दे

जुदाइयों की ये रातें तो काटनी होंगी
कहानियों को कोई कैसे मुख़्तसर कर दे

तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ
कि जैसा बच्चा किताबें इधर-उधर कर दे

'वसीम' किस ने कहा था कि यूँ ग़ज़ल कह कर
ये फूल जैसी ज़मीं आँसुओं से तर कर दे