EN اردو
मिरी आँखों से ज़ाहिर ख़ूँ-फ़िशानी अब भी होती है | शाही शायरी
meri aankhon se zahir KHun-fishani ab bhi hoti hai

ग़ज़ल

मिरी आँखों से ज़ाहिर ख़ूँ-फ़िशानी अब भी होती है

अख़्तर शीरानी

;

मिरी आँखों से ज़ाहिर ख़ूँ-फ़िशानी अब भी होती है
निगाहों से बयाँ दिल की कहानी अब भी होती है

सुरूर-आरा शराब-ए-अर्ग़वानी अब भी होती है
मिरे क़दमों में दुनिया की जवानी अब भी होती है

कोई झोंका तो लाती ऐ नसीम अतराफ़-ए-कनआँ तक
सवाद-ए-मिस्र में अम्बर-फ़िशानी अब भी होती है

वो शब को मुश्क-बू पर्दों में छुप कर आ ही जाते हैं
मिरे ख़्वाबों पर उन की मेहरबानी अब भी होती है

कहीं से हाथ आ जाए तो हम को भी कोई ला दे
सुना है इस जहाँ में शादमानी अब भी होती है

हिलाल ओ बद्र के नक़्शे सबक़ देते हैं इंसाँ को
कि नाकामी बिना-ए-कामरानी अब भी होती है

कहीं अग़्यार के ख़्वाबों में छुप छुप कर न जाते हों
वो पहलू में हैं लेकिन बद-गुमानी अब भी होती है

समझता है शिकस्त-ए-तौबा अश्क-ए-तौबा को ज़ाहिद
मिरी आँखों की रंगत अर्ग़वानी अब भी होती है

वो बरसातें वो बातें वो मुलाक़ातें कहाँ हमदम
वतन की रात होने को सुहानी अब भी होती है

ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में
हमारे हाल पर कुछ मेहरबानी अब भी होती है

ज़बाँ ही में न हो तासीर तो मैं क्या करूँ नासेह
तिरी बातों से पैदा सरगिरानी अब भी होती है

तुम्हारे गेसुओं की छाँव में इक रात गुज़री थी
सितारों की ज़बाँ पर ये कहानी अब भी होती है

पस-ए-तौबा भी पी लेते हैं जाम-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल से
बहारों में जुनूँ की मेहमानी अब भी होती है

कोई ख़ुश हो मिरी मायूसियाँ फ़रियाद करती हैं
इलाही क्या जहाँ में शादमानी अब भी होती है

बुतों को कर दिया था जिस ने मजबूर-ए-सुख़न 'अख़्तर'
लबों पर वो नवा-ए-आसमानी अब भी होती है