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मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से | शाही शायरी
mere dil mein hai ki puchhun kabhi murshid-e-mughan se

ग़ज़ल

मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से

अब्दुल मजीद सालिक

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मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से
कि मिला जमाल-ए-साक़ी को ये तनतना कहाँ से

वो ये कह रहे हैं हम को तिरे हाल की ख़बर क्या
तू उठा सका निगाहें न बता सका ज़बाँ से

जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो न ज़ीस्त ने वफ़ा की
अभी आ के वो न बैठे कि हम उठ गए जहाँ से

मैं अदम के लाला-ज़ारों में नवा-गर-ए-अज़ल था
मुझे खींच लाई ज़ालिम तिरी आरज़ू कहाँ से

मिरी सरनविश्त में था वही दाग़-ए-ना-मुरादी
जो मिला मिरी जबीं को तिरे संग-ए-आस्ताँ से

बचे बिजलियों की ज़द से वही ताएरान-ए-दाना
जो कड़क चमक से पहले निकल आए आशियाँ से

ये है माजरा-ए-वहशत कि मिला सुराग़-ए-महमिल
न ग़ुबार-ए-कारवाँ से न दरा-ए-कारवाँ से

नहीं कुछ समझ में आता ये अजीब माजरा है
कि ज़मीं के रहने वालों को हिदायत आसमाँ से

शब-ए-ग़म जो आई 'सालिक' मिटे बातनी अंधेरे
मिरा दिल हुआ मुनव्वर तब-ओ-ताब-ए-जावेदाँ से