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सीना है चाक-ए-जिगर पारा है दिल सब ख़ूँ है | शाही शायरी
sina hai chaak-e-jigar para hai dil sab KHun hai

ग़ज़ल

सीना है चाक-ए-जिगर पारा है दिल सब ख़ूँ है

मीर तक़ी मीर

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सीना है चाक-ए-जिगर पारा है दिल सब ख़ूँ है
तिस पे ये जान-ब-लब आमदा भी महज़ूँ है

उस से आँखों को मिला जी में रहे क्यूँकर ताब
चश्म-ए-ए'जाज़-ए-मिज़ा सहर-ए-निगह-ए-अफ़्सूँ है

आह ये रस्म-ए-वफ़ा होवे बर-उफ्ताद कहीं
इस सितम पर भी मिरा दिल उसी का ममनूँ है

कभू इस दश्त से उठता है जो एक अब्र तनिक
गर्द-ए-नमनाक परेशाँ शुदा-ए-मजनूँ है

क्यूँके बे-बादा लब-ए-जू पे चमन में रहिए
अक्स-ए-गुल आब में तकलीफ़-ए-मय-ए-गुल-गूँ है

पार भी हो न कलेजे के तो फिर क्या बुलबुल
मिस्रा-नाला जिगर-कावी है गो मौज़ूँ है

शहर कितना जो कोई उन में सरिश्क-ए-अफ़्शाँ हो
रू-कश-ए-गिर्या-ए-ग़म हौसला-ए-हामूँ है

ख़ून हर यक रक़म शौक़ से टपके था वले
वो न समझा कि मिरे नामे का क्या मज़मूँ है

'मीर' की बात पे हर वक़्त ये झुँझलाया न कर
सड़ी है ख़ब्ती है वो शेफ़्ता है मजनूँ है