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याँ सरकशाँ जो साहब-ए-ताज ओ लवा हुए | शाही शायरी
yan sarkashan jo sahab-e-taj o lawa hue

ग़ज़ल

याँ सरकशाँ जो साहब-ए-ताज ओ लवा हुए

मीर तक़ी मीर

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याँ सरकशाँ जो साहब-ए-ताज ओ लवा हुए
पामाल हो गए तो न जाना कि क्या हुए

देखी न एक चश्मक-ए-गुल भी चमन में आह
हम आख़िर बहार-ए-क़फ़स से रहा हुए

पछताओगे बहुत जो गए हम जहाँ से
आदम की क़दर होती है ज़ाहिर जुदा हुए

तुझ बिन दिमाग़ सोहबत-ए-अहल-ए-चमन न था
गुल वा हुए हज़ार वले हम न वा हुए

सर दे के 'मीर' हम ने फ़राग़त की इश्क़ में
ज़िम्मे हमारे बोझ था बारे अदा हुए