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आगे हमारे अहद से वहशत को जा न थी | शाही शायरी
aage hamare ahd se wahshat ko ja na thi

ग़ज़ल

आगे हमारे अहद से वहशत को जा न थी

मीर तक़ी मीर

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आगे हमारे अहद से वहशत को जा न थी
दीवानगी कसो की भी ज़ंजीर-ए-पा न थी

बेगाना सा लगे है चमन अब ख़िज़ाँ में हाए
ऐसी गई बहार मगर आश्ना न थी

कब था ये शोर-ए-नौहा तिरा इश्क़ जब न था
दिल था हमारा आगे तू मातम-सरा न थी

वो और कोई होगी सहर जब हुई क़ुबूल
शर्मिंदा-ए-असर तो हमारी दुआ न थी

आगे भी तेरे इश्क़ से खींचे थे दर्द-ओ-रंज
लेकिन हमारी जान पर ऐसी बला न थी

देखे दयार-ए-हुस्न के में कारवाँ बहुत
लेकिन कसो के पास मता-ए-वफ़ा न थी

आई परी सी पर्दा-ए-मीना से जाम तक
आँखों में तेरी दुख़्तर-ए-रज़ क्या हया न थी

इस वक़्त से क्या है मुझे तो चराग़-ए-वक़्फ़
मख़्लूक़ जब जहाँ में नसीम-ओ-सबा न थी

पज़मुर्दा इस क़दर हैं कि है शुबह हम को 'मीर'
तन में हमारे जान कभू थी भी या न थी