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मज़ा है इम्तिहाँ का आज़मा ले जिस का जी चाहे | शाही शायरी
maza hai imtihan ka aazma le jis ka ji chahe

ग़ज़ल

मज़ा है इम्तिहाँ का आज़मा ले जिस का जी चाहे

आग़ा अकबराबादी

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मज़ा है इम्तिहाँ का आज़मा ले जिस का जी चाहे
नमक ज़ख़्म-ए-जिगर पर और डाले जिस का जी चाहे

जिगर मौजूद है तो वो बना ले जिस का जी चाहे
गला हाज़िर है ख़ंजर आज़मा ले जिस का जी चाहे

अगर है हुस्न का दावा मह ओ ख़ुर्शीद दोनों में
कफ़-ए-पा से तुम्हारे मुँह मिला ले जिस का जी चाहे

ये मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ अपने किसी के काम में आएँ
हुमा हो या सग-ए-दिलदार खा ले जिस का जी चाहे

अगर है ज़िंदगी बाक़ी तो हम हसरत निकालेंगे
दिल-ए-पुर-आरज़ू पर ख़ाक डाले जिस का जी चाहे

फ़क़ीरों को नहीं कुछ ज़ीनत-ए-दुनिया से मतलब है
मैं ख़ुश कम्बल में हूँ ओढ़े दोशाले जिस का जी चाहे

जो रौशन दिल में उन की रौशनी छुपती नहीं हरगिज़
मह-ए-ताबाँ पे साहब ख़ाक डाले जिस का जी चाहे

शिकायत मुझ को दोनों से है नासेह हो कि वाइज़ हो
न समझा हूँ न समझूँ सर फिरा ले जिस का जी चाहे

मैं हूँ बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-उफ़्तादा मैं मरदूद दहक़ाँ हूँ
गिरा हूँ उन की नज़रों से उठा ले जिस का जी चाहे

नहीं होता कभी आब-ए-रवाँ पर शक निजासत का
मिरे अश्कों के दरिया में नहा ले जिस का जी चाहे

चमन में गुल के मुरझाने से 'आग़ा' हो गया साबित
बिसान-ए-ग़ुंचा दम भर मुस्कुरा ले जिस का जी चाहे