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मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था | शाही शायरी
masjidon ke sahn tak jaana bahut dushwar tha

ग़ज़ल

मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था

राहत इंदौरी

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मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
दैर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था

देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया
कल यही चेहरा हमारे आइनों पर बार था

अपनी क़िस्मत में लिखी थी धूप की नाराज़गी
साया-ए-दीवार था लेकिन पस-ए-दीवार था

सब के दुख सुख उस के चेहरे पर लिखे पाए गए
आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था

अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब
इक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था