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मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे | शाही शायरी
maraz-e-ishq jise ho use kya yaad rahe

ग़ज़ल

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
न दवा याद रहे और न दुआ याद रहे

तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न ख़ुदाई की हो परवा न ख़ुदा याद रहे

लोटते सैकड़ों नख़चीर हैं क्या याद रहे
चीर दो सीने में दिल को कि पता याद रहे

रात का वादा है बंदे से अगर बंदा-नवाज़
बंद में दे लो गिरह ता कि ज़रा याद रहे

क़ासिद-ए-आशिक़-ए-सौदा-ज़दा क्या लाए जवाब
जब न मालूम हो घर और न पता याद रहे

देख भी लेना हमें राह में और क्यूँ साहब
हम से मुँह फेर के जाना ये भला याद रहे

तेरे मदहोश से क्या होश ओ ख़िरद की हो उम्मीद
रात का भी न जिसे खाया हुआ याद रहे

कुश्ता-ए-नाज़ की गर्दन पे छुरी फेरो जब
काश उस वक़्त तुम्हें नाम-ए-ख़ुदा याद रहे

ख़ाक बर्बाद न करना मिरी उस कूचे में
तुझ से कह देता हूँ मैं बाद-ए-सबा याद रहे

गोर तक आए तो छाती पे क़दम भी रख दो
कोई बे-दिल इधर आए तो पता याद रहे

तेरा आशिक़ न हो आसूदा ब-ज़ेर-ए-तूबा
ख़ुल्द में भी तिरे कूचे की हवा याद रहे

बाज़ आ जाएँ जफ़ा से जो कभी आप तो फिर
याद आशिक़ को न कीजेगा भला याद रहे

दाग़-ए-दिल पर मिरे फाहा नहीं है अँगारा
चारागर लीजो न चुटकी से उठा याद रहे

ज़ख़्म-ए-दिल बोले मिरे दिल के नमक-ख़्वारों से
लो भला कुछ तो मोहब्बत का मज़ा याद रहे

हज़रत-ए-इश्क़ के मकतब में है तालीम कुछ और
याँ लिक्खा याद रहे और न पढ़ा याद रहे

गर हक़ीक़त में है रहना तो न रख ख़ुद-बीनी
भूले बंदा जो ख़ुदी को तो ख़ुदा याद रहे

आलम-ए-हुस्न ख़ुदाई है बुतों की ऐ 'ज़ौक़'
चल के बुत-ख़ाने में बैठो कि ख़ुदा याद रहे