EN اردو
मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या | शाही शायरी
main us ka nam ghule paniyon pe likhta kya

ग़ज़ल

मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या

अख़्तर होशियारपुरी

;

मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या
वो एक मौज-ए-रवाँ है कहीं पे रुकता क्या

तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए
न जाने मैं ने कहा क्या और उस ने समझा क्या

सभों को अपनी ग़रज़ थी सभों को अपनी बक़ा
मिरे लिए मिरे नज़दीक कोई आता क्या

उभरता चाँद मिरा हम-सफ़र था दरिया में
मैं डूबते हुए सूरज को मुड़ के तकता क्या

परिंदे घर की मुंडेरों पे आ के बैठ गए
मैं अजनबी था इशारा कोई समझता क्या

फ़िराक़ ओ वस्ल तो तस्वीरें उन के नाम की हैं
मैं इन में रंग किसी के लहू से भरता क्या

मैं अपने घर में नहीं था मगर कहीं भी न था
उधर से मुझ को गुज़रते किसी ने देखा क्या

तमाम शहर रवाँ है मिरे तआक़ुब में
मैं आप क्या मिरे घर की तरफ़ को रस्ता क्या

ये रौशनी कभी पहले न थी यहाँ 'अख़्तर'
सितारा रात की पलकों पे कोई चमका क्या