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महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया | शाही शायरी
mahsus lams jis ka sar-e-rah-guzar kiya

ग़ज़ल

महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया

साबिर ज़फ़र

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महसूस लम्स जिस का सर-ए-रह-गुज़र किया
साया था वो उसी का जिसे हम-सफ़र किया

कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया

रहना नहीं था साथ किसी के मगर रहे
करना नहीं था याद किसी को मगर किया

तू आइना भी आप था और अक्स भी था आप
तेरे जमाल ही ने तुझे ख़ुश-नज़र किया

वो जिस डगर मिलेगा वहीं मर मिटूंगा मैं
तुम देखना सफ़र का इरादा अगर किया

जब ज़िंदगी गुज़ार दी आया है तब ख़याल
क्यूँ उस का इंतिज़ार 'ज़फ़र' उम्र भर किया