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कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे | शाही शायरी
kuchh bhi tha sach ke taraf-dar hua karte the

ग़ज़ल

कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे

सलीम कौसर

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कुछ भी था सच के तरफ़-दार हुआ करते थे
तुम कभी साहब-ए-किरदार हुआ करते थे

सुनते हैं ऐसा ज़माना भी यहाँ गुज़रा है
हक़ उन्हें मिलता जो हक़दार हुआ करते थे

तुझ को भी ज़ोम सा रहता था मसीहाई का
और हम भी तिरे बीमार हुआ करते थे

इक नज़र रोज़ कहीं जाल बिछाए रखती
और हम रोज़ गिरफ़्तार हुआ करते थे

हम को मालूम था आना तो नहीं तुझ को मगर
तेरे आने के तो आसार हुआ करते थे

इश्क़ करते थे फ़क़त पास-ए-वफ़ा रखने को
लोग सच-मुच के वफ़ादार हुआ करते थे

आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर
हम तिरे वास्ते तय्यार हुआ करते थे

हम गुल-ए-ख़्वाब सजाते थे दुकान-ए-दिल में
और फिर ख़ुद ही ख़रीदार हुआ करते थे

कूचा-ए-'मीर' की जानिब निकल आते थे सभी
वो जो 'ग़ालिब' के तरफ़-दार हुआ करते थे

जिन से आवारगी-ए-शब का भरम था वो लोग
इस भरे शहर में दो-चार हुआ करते थे

ये जो ज़िंदाँ में तुम्हें साए नज़र आते हैं
ये कभी रौनक़-ए-दरबार हुआ करते थे

मैं सर-ए-दश्त-ए-वफ़ा अब हूँ अकेला वर्ना
मेरे हम-राह मिरे यार हुआ करते थे

वक़्त रुक रुक के जिन्हें देखता रहता है 'सलीम'
ये कभी वक़्त की रफ़्तार हुआ करते थे