EN اردو
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन | शाही शायरी
koi samjhega kya raaz-e-gulshan

ग़ज़ल

कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन

फ़ना निज़ामी कानपुरी

;

कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन

यक-ब-यक सामने आ न जाना
रुक न जाए कहीं दिल की धड़कन

गुल तो गुल ख़ार तक चुन लिए हैं
फिर भी ख़ाली है गुलचीं का दामन

कितनी आराइश-ए-आशियाना
टूट जाए न शाख़-ए-नशेमन

अज़्मत-ए-आशियाना बढ़ा दी
बर्क़ को दोस्त समझूँ कि दुश्मन

उन गुलों से तो काँटे ही अच्छे
जिन से होती हो तौहीन-ए-गुलशन